एक मुसल्मान को ला रहे हो ये मुझे पहले बताना था....are we secular?

Thursday, July 30, 2009


फिल्म अभिनेता इमरान हाशमी ने मुम्बई की एक हाउसिंग सोसाइटी पर गंभीर आरोप लगाया है और कहा है की उन्हे उस सोसायटी में इस लिए घर नही मिल रहा है क्योकि वो एक मुस्लि है क्या इमरान के आरोपों में सच्चाई है?....ये पहली बार नही है जब फिल्म जगत की किसी हस्ती ने एसा आरोप लगाया है इससे पहले शबाना आज़मी सैफ अली खान भी एसे आरोप लगा चुके आरोप गंभीर है ...इस बात से तो सभी वाकिफ हैं की जुहू और बांद्रा में मुस्लिम कलाकारों को घर मिलने में हमेशा दिक्क्त इसलिए इस पर बहस जरुरी है ये लोग फिल्मी हस्तिया अपनी बात या अपने साथ हो रहे सलूक को ज्यादा बेहतर ढंग से बयान कर सकते है लेकिन क्या किसी ने सोचा है की 21वी सदी के मेट्रोपोलिटिन कहने जाने वाले हमारे शहरों में एसे वाक्यात रोज़ होते है एक सच्चा किस्सा बयान कर रहा हू जो हमारी धर्मनिरपेक्ष सोच पर से पर्दा उठाते है.. मेरे एक जानकार मुस्लिम दोस्त है ....एक रोज़ हमसे कहने लगे की यार अपनी कालोनी में हमारे लिए किराये का मकान देखों .....पांच वक्त के नमाजी आदमी है... और हैरत की बात है की पूरी तरह से शाकाहारी है... जबकि मै मांस मच्छी सब खाता हूं ...एक दफा मैने उनसे पूछा की आप एक मजहब में तो इस पर रोक नही है तो फिर आप ये सब क्यों नही खाते उन्होने कहा की मजहब का बात नही है बस यूंही नही खाता और मेरे घर में भी कोई नही खाता...खैर मैने उनके लिए मकान खोजना शुरु कर दिया पेशे से एक संस्थान में नेटवर्क एडमिनीस्ट्रेटर है...आमदनी ठीक ठाक .....कुछ कोशिशों के बाद एक खाली मकान निगाह में आया दरअसल जिनके यहां पहले मै किराये पर रहता था उन्ही का मकान खाली था मेरे संबध पुराने मकान मालिक से से अच्छे थे सो फोन पर बात होने के बाद उन्होने कहा की यार जो भी है उनहे आज शाम को मकान दिखाने ले आओ मै उन्हे मकान दिखाने ले गया शाम को चाय पर मकान मालिक से मुलाताकात हुई मेरे दोस्त मेरे साथ थे बातचीत का सिलसिला शुरु हुआ जब परिचय हुआ तो मेरे पुराने मकान मालिक के चेहरे के हावभाव बदल गये यकिन मानिये मैने मकानमालिक के चेहरे के एक एक भाव को उस वक्त पढ़ा.. शायद मेरे दोस्त ने भी पढा होगा.. अचानक उन्होने कह दिया की अभी मकान में कुछ काम होना बाकी है सो अभी वो मकान नही दे पायेंगे... मुझे और मेरे दोस्त को समझते देर नही लगी की की अचानक उनके रवैये में इस बदलाव की वजह क्या थी.... उनके यहां से बाहर आने के बाद मैं अपने दोस्त से नजरें नही मिला पाया मेरे दोस्त ने कहा कोई बात नही हो जात है.... तुम मेरे लिए कोई और मकान देख लो सभी लोग एक से नही होते ये सुनकर मै बड़ी खामोशी से उन से विदा लेकर चल पड़ा..... शाम को यही सोच कर मैनें कुछ और घर ढूढने की कोशिश की लेकिन इस बार मैने सबको ये पहले ही बता दिया की मेरा देस्त मुस्लिम है यकिन मानिये सब ने न कह दी उसी रात मुझे मेरे पुराने मकान मालिक का फोन आया मुझे लगा का शायद वो अपने किए के लिए शर्मिंदा होंगे लेकिन एसा कुछ नही था उन्होने कहा की ''तुम्हे हमारी सेफ्टी का कुछ ख्याल है नही यार तुम किसी को भी ले आये..... एक मुस्लमान के ला रहे हो ये मुझे पहले बताना था'' ....इस के बाद मै पूरी रात ये ही सोचता रहा की आखिर इसके पीछे बजह क्या थी

जीना इसी का नाम है.........

Wednesday, July 29, 2009


एक सड़क हादसे मे दोस्त की मौत ने कुछ यूवाओं को इस कदर झकझोरा की इन दोस्तों ने एसे लोगों की जिंदगी बचाने का बीड़ा उठा लिया जो सड़क हादसे का शिकार होने के बाद एक अदद मदद को तरस रहे होते है ....अब जैसै ही इन लोगों को सड़क हादसे में किसी के घायल होनो की खबर मिलती है ये उन्हे बचाने दौड़ पड़ते है इसके लिए इन्होने एक एंब्यलोंस सेवा भी शुरु की है......दरअसल कुछ साल पहले जब ये लोग कार से कहीं जा रहे थे तभी गाजियाबाद में हाइवे पर इनकी कार का एक्सीडेंट हो गया खून से लथपथ ये लोग कार में फंसे अपने दोस्त की जिंदगी बचाने के लिए लोगों से गुहार लगाते रहे..... हाईवे पर आती जाती कई गाड़ियों के रोकने की कोशिश इन्होने की..... लेकिन किसी ने भी रुकने और इनकी मदद करने की जरुरत नही समझी....आखिरकार इनका दोस्त मौत से जंग हार गया ये लोग दोस्त के लिए ढेड़ घंटे तक मदद का इंतजार करते रहे लेकिन इन्हे मदद नही मिली अपने दोस्त को खोने के बाद इन्होने फैसला किया की ये अब मदद के लिए तरसते लोगों की जिंदगीयां बचायेंगे ...और तभी से ये लोग नोएडा और आसपास हादसे का सइकार हो रहे लोगों का मदद करते आ रहे है .......इस बारे में पोस्ट लिखने का मकसद और कुछ नही ब्लकि इस नेक काम के बारें मे ज्यादा से ज्यादा लोगों को बताना है अगर आप भी कभी किसी सड़क हादसे के शिकार की मदद करना चाहें तो एक सड़क हादसे मे दोस्त की मौत ने कुछ यूवाओं को इस कदर झकझोरा की इन दोस्तों ने एसे लोगों की जिंदगी बचाने का बीड़ा उठा लिया जो सड़क हादसे का शिकार होने के बाद एक अदद मदद को तरस रहे होते है ....अब जैसै ही इन लोगों को सड़क हादसे में किसी के घायल होनो की खबर मिलती है ये उन्हे बचाने दौड़ पड़ते है इसके लिए इन्होने एक एंब्यलोंस सेवा भी शुरु की है......दरअसल कुछ साल पहले जब ये लोग कार से कहीं जा रहे थे तभी गाजियाबाद में हाइवे पर इनकी कार का एक्सीडेंट हो गया खून से लथपथ ये लोग कार में फंसे अपने दोस्त की जिंदगी बचाने के लिए लोगों से गुहार लगाते रहे..... हाईवे पर आती जाती कई गाड़ियों के रोकने की कोशिश इन्होने की..... लेकिन किसी ने भी रुकने और इनकी मदद करने की जरुरत नही समझी....आखिरकार इनका दोस्त मौत से जंग हार गया ये लोग दोस्त के लिए ढेड़ घंटे तक मदद का इंतजार करते रहे लेकिन इन्हे मदद नही मिली अपने दोस्त को खोने के बाद इन्होने फैसला किया की ये अब मदद के लिए तरसते लोगों की जिंदगीयां बचायेंगे ...और तभी से ये लोग नोएडा और आसपास हादसे का सइकार हो रहे लोगों का मदद करते आ रहे है .......इस बारे में पोस्ट लिखने का मकसद और कुछ नही ब्लकि इस नेक काम के बारें मे ज्यादा से ज्यादा लोगों को बताना है अगर आप भी कभी किसी सड़क हादसे के शिकार की मदद करना चाहें तो 9899577999. पर सूचना दे सकते है.........

शो में सेक्स पर हल्ला पर जो मन में है उसका क्या करोगे

Tuesday, July 28, 2009



नये कार्यक्रमों में जिस तरह से सेक्स परोसा जा रहा है जो अश्लीलता दिखाई जा रही है उस पर खासा हल्ला मच रहा है न जाने कितने लोग इसे भोंडा करार दे रहे है कहते है सेक्स पर सवाल नही पूछे जाने चाहिये.. इसका प्रदर्शन नही करना चाहिये ये हमारी संसकृति को नष्ट कर देगा चलीये मान लेते है की इस बात में दम है .... वाकई ये शर्म का विषय है लेकिन इसका विरोध करने वाले सभी लोगों से मै पूछना चाहुंगा की क्या वाकई आप सभी लोग अपने मन और जेहन में इतने ही साफ है जितना पुरजोर तरीके से आप लोग इसका विरोध कर रहे है .....भारत में पोर्नोग्राफी पर प्रतिबंध है तो क्या भारत में अश्लील वेबसाईट सर्च करने वालों का तादाद विश्व के बाकी ह्स्सों से कम है ... क्या मोबाईल फोन में एसी क्लीपस रखने वालों का संख्या हमारे यहां न के बराबर है...सानिया मिर्जा को सकर्ट न पहन कर खेलने की हिदायत देने वाले देश में क्या एसे लोग नही है जो नेट पर पूरा दिन इन जैसी हस्तियों के अश्लील चित्र खोजते हुए ही बिताते है. गे रिश्तों को मान्यता दे देने वाले देश में सेक्स के नाम पर लोगों का ये दोहरा चरित्र किस ओर ईशारा करता है ?मै यहां टीवी पर सेक्स परोसे जाने की संस्कृति का बिल्कुल भी समर्थन नही कर रहा हूं लेकिन उन लोगों से सवाल जरुर कर रहा हूं जो दिखाते कुछ और है और होते कुछ और जिस पेशे में मै काम करता हूं वहां कमोबेश हर दूसरा शख्स इस फिराक में रहता है कैसे किसी महिला को आगे बढाने के नाम पर उसका दैहिक शोषण किया जायें ...जिन नेताओं ने लोकसभा और राज्यसभा में देश के नैतिक मूल्यों की दुहाई दी और सदन में हंगामा किया क्या उनके चरित्र और मन इस विषय पर पाक साफ है.... पेशें में रहते हुए मै और मेरे जैसे कइ लोग ये जानते है की कैये से तथाकथित भारतीय संसकृति के नेता कार्ल गर्लस और मजबूर लड़कियों का इस्तेमाल करते है ...कालेजों में कांडम वेंडिग मशीनें लगाने की सिफारिश करने वाले देश में सेक्स को लेकर ये दोहरी मानसिकता समझ से परें है ... जिस देश में में 70 प्रतिशत लोग विवाह से पहले ही सेक्स का स्वाद चख चुकें हो वहां सेक्स को लेकर नैतिकता की दुहाई देना दोहरा मांनदड नही है तो और क्या है .....मैं इस खुलेपन का समर्थन नही कर रहा हूं लेकिन य कह रहा हूं की खिचड़ी संस्कृति के अपनाने से अच्छा है की आप एक राह चुन ले और उस पर चले मन में अश्लीलता और जुबान पर सेक्स और एसे विषयों को लेकर विरोध के स्वर ....फैसला आप करें..

क्या देश का तालिबानीकरण करके मानोगे

Sunday, July 26, 2009



इन दिनों भारत का एक तरह का तालिबानीकरण करने की कोशिश चल रही भारतीय संस्कृति के झंडाबरदारों को संस्कृति के नष्ट होने की आजकल ऐसी चिंता खाए जे रही है जैसी आज से पहले कभी नहीं थी .....इस पर पाबन्दी लगा दो, उसे बंद करदो ये, पहनने की इजाज़त मत दो, ये अश्लील है, वो भोंडा है ... ..और आजकल संस्कृति के पहरेदारों ने निशाना बनाया है टीवी पर आने वाले रियल्टी शोज़ और सीरियल्स को....... एक अमेरिकी टीवी शो मूमेंट ऑफ़ ट्रुथ के भारतीय संस्करण 'सच का सामना' पर विवाद तो ऐसा गर्माया है जैसे भारतीय टेलीविजन पर एक शो का नहीं किसी बी ग्रेड फिल्म का प्रसारण किया जा रहा हो ..... भाई सच बोलना तो हमारी संस्कृति का हिस्सा रहा है न तो इस पर क्या परेशानी है... झूठ की बुनियाद पर ज़िन्दगी जीने वालों को सच की गोली हज़म क्यों नहीं हो रही है ...अगर कोई अपनी ज़िन्दगी के ऐसे खुलासे कर रहा है जिसके उसकी ज़िन्दगी तबाह हो सकती तो भी ये किसी का खुद का फैसला है इसपर आपत्ति क्यों इस कार्यक्रम के ज़रिये न सही लेकिन कभी न कभी तो सच सामने आता है न तो फिर इसको एक वयाव्सायिक रूप देने में क्या दिक्कत है दुनिया के साथ देशों में ये शो चल रहा है लेकिन सिर्फ हमारे यहीं इस पर इतना हंगामा उठ रहा है.. लोगों का आरोप है की इसमें पूछे जाने वाले सवाल अश्लील और भोंडे होते है .....अगर किसी का पति शो पर ये कहता है की अगर उसकी पत्नी को पता न चले तो वो किसी दूसरी औरत के साथ हमबिस्तर हो जाएगा अब औसने ये शो पर बता दिया तो संस्कृति के खिलाफ हो गया वो ये असल में करता और किसी को पता नहीं चलता तो इसमें कुछ गलत नहीं था... परदे की अहमियत तभी तक है जब तक पर्दा करने वाला ये समझता है की ये उसके लिए जरुरी है इस तरह की बातों पर शोशा करने वालों को अपने गिरेबान में झांकना चाहिए... क्या वो असल में क्या भारत की संस्कृति और सभ्यता को इतना कमज़ोर क्यों समझा जाता है उसके संस्कार पच्छिम से आने वाली हवा बहा के ले जायेगी... और वैस भी किसी देश के लोग ही देश की सभ्यता को तय करते है न की सभ्यता ये तय करेगी की उसमे किस तरह के लोग रहेंगे.... हंगामा सिर्फ इस शो पर ही नहीं है कई दुसरे शोज़ पर भी अश्लीलता फैलाने के आरोप लग रहे है लेकिन इन आरोप लगाने वालों से कोई ये पूछें की जब लोग देख रहे हो तो इन्हें क्या दिक्कत है.... इन नए तालिबानियों के पास तर्क है की जिस तरह के द्रश्य इन कर्यक्रमों में दिखाए जाते है वो संस्कृति के माकूल नहीं है तो यार रिमोट तो आपके ही हाथों में है बदल दो और वैस भी केबल के जरिये जिस तबके तक ये कार्यक्रम पहुँच रहे है वो कोई ऐसा अनपढ़ तबका नहीं है जिसे अपने अछे बुरे की समझ के लिए ये हंगामा बरपाने वालें लोगों की ज़रूरत पड़ेगी वो भली भांति ये जनता है की वो क्या देख रहा है और उसे क्या नहीं देखना है... हंगामा करने वाले सिर्फ छपास की बीमारी से ग्रस्त है और कुछ नहीं देश है कोई गाय भैसों का झुंड नहीं है जिसे आप अपनी लाठी से हांक ने की कोशिश करते रहेंगे ऐसा न ही की आपसे आजिज़ आकर किसी दिन लोग सबसे पहले आपको ही लठिया दे.......... सो परिक्व जनता को परिक्व देश बनाने दे इसमें रोडे न अटकाए...

हाज़मा दुरुस्त रखें....आ रहा है शिव वड़ापाव

Thursday, June 18, 2009


कहा जाता है की किसी इंसान के दिल तक पहुंचना हो तो उसके पेट के जरिये पहुंचा जा सकता है और लगता है की ये बात अब राजनेताओं को भी समझ आ गई है और अब लोगों को स्वाद का गुलाम बनाकर वोट खिंचने की तैयारी की जाने लगी है ......... इसी की बानगी मुंम्बई मे देखने को मिल रही है..... जहां मराठा मानूस का राग अलापने वाली शिव सेना ने अपने ब्रांड नाम से वड़ापाव लॉच किया है एक ओर तो दावा किया जा रहा है की लोग इसके स्वाद के इतने मुरीद हो जायेंगे की इसको खाने वालों के वोट सीधे शिवसेना के खाते मे ही जायेंगे वही इसके ज़रिये हज़ारों मराठी यूवकों को रोज़गार देने का दावा भी किया जा रहा है यानी की एक तीर से दो नही तीन निशाने ....27 केंद्रों पर बनने वाले इन वड़ापाव को बेचने के लिए लगभग 1500 स्टाल्स बनायें गये हैं जिन पर इन शिव बड़ापाव की बिक्री होगी साथ ही इसे ब्रांडेड लुक देने की भी तैयारी है ... शिव सेना जानती है की इस अदने से वड़ापाव का महाराषट्र को लोगों की जिंदगी में क्या रोल है ....मुम्बई में जब हजारों लोगो को खाने के लाले पड़ते है तो वड़ा पाव ही एसे लोगों का सहारा बनता है..इसके अलावा ये निचले से लेकर उपर तक के तबके की पसंद है ... दिल्ली से मुम्मबई जाते हुए ट्रेन में जैसे ही वड़पाव गर्मा गर्म वड़पाव की आवाज़ आपके कानों में पडने लगे तो समझ जाइये की आप महाराषट्र मे एंटर हो चुके हैं यानी की वड़पाव की पहुंच महाराषट्र एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक है यही वजह है की शिवसेना ने इस बार वड़पाव को अपनी राजनिति का हथियार बनाने की कोशिश की है.. ये तो शुरुआत है कांग्रेस ने भी इसके जवाब में कांग्रेस पोहा लाने की तैयारी कर ली है अगर एसा हुआ तो राजनितक पार्टियों मे एक दिलचस्प होड़ शुरु हो सकती है शायद उत्तर भारतीयों और बिहारीयों के खिलाफ ज़हर उगलने वाली शिवसेना के विरोध मे बिहार का कोई राजनितिक दल अपने नाम से सत्तू लॉंच करदे ...और हो सकता है की देखा देखी भाजपा बसपा सपा और न जाने कौन कौन अपने नाम से क्या क्या बेचना शुरु कर दें ....और आखिर फ्रेचाइजी के जमाने में लोगों तक पहुचने का इससे अच्छा तरीका क्या हो सकता है ....बात मुम्बई की करें तो वहा यो सारी कवायद विधानसभा चुनावों को देखते हुए की जा रही है लेकिन अब ये देखना होगा की चुनावों के दौरान आचार सहिता के चलते क्या चुनाव आयोग इस बवड़ापाव और पोहे की बिक्री पर रोक लगायेगा खैर.... वो तो चुनाव करीब आने पर हा पता चलेगा लेकिन एक बात तो साफ है की अब जब राजनितिक पार्टीयों की नज़र आपके पेट तक पहंच चुकी है तो एसे में जरुरी है की हम सब अपने अपने हाज़मे को दुरुस्त रखे क्योंकी वड़ापाव के साथ साथ चुनावी जंग मे और बहुत कुछ भी हज़म करना पड़ सकता है

क्या सलीम खान को मोहल्ले से बाहर करना जायज़ है?

Wednesday, June 17, 2009


पिछले दिनों सलीम खान नाम के एक शख्स नें मोहल्ला पर कुछ लिख क्या दिया इस पर कुछ ठेकेदारों ने हंगामा बरपा दिया सलीम की एंट्री मोहल्ला में बंद कर दी गई भई क्या अब भी हम उस युग में जी रहे है जहां किसी का हुक्का पानी बंद कर दिया जाता है लोकतंत्र आगर आप को कुछ कहने की आजादी देता है तो कुछ सुनने का माद्धा भी हम सभी को रखना चाहिये सलीम खान की सोच संकीरेण है यै नही इस बारें तो मै कुछ नही कहना चाहता लेकिन मोहल्ले से उन्हे बाहर करने वाले और करवाने वालों की सोच बहुत छोटी है ये बात मुझे पता लग गई अगर कोई ब्लाग के जरिये किसी मज़हब की पैरोकारी कर रहा है तो करने दिजीये ना ...आप अपने विवेक से काम लिजिये...मुझे अविनाश जी से अपनी मुलाकात ध्यान है हम सराय मै ब्लागर्स की मीटिंग के तहत मिले थे तब मुझे ब्लाग के विषय में कुछ खास पता नही था लेकिन अविनाश जी के विचारों ने मुझ् ब्लागिंग के लिए प्रेरित किया और फिर मैने अपने प्पत्रकारिता के अंतिम साल में ब्लागिंग के ही अपने प्रोजेक्ट के तौर पर चुना,. तब अविनाश जी से मै उनके घर पर मिला और उनका इंटरव्यू किया... जिस चीज़ ने मुझे ब्लागिंग के लिए प्रेरित किया वो थी इसकी लोकतंत्र को और मज़बूत करने वाली बात की किस तरह यहां कोई भी कुछ भी लिख सकता है और अपने विचार रख सकता है ये बात मुझे अविनाश जी ने बताई ...मै अविनाश जी सो पूछना चाहता हूं की वो लोकतांत्रिक रवैये वाली बात अब कहां गयी क्यों कुछ समाज के ठेकेदारों के दबाव मे आकर आपने सलीम खान को प्रतिबंधित कर दिया ब्लाग पर सैंसर की बात समझ मे नही आयी वो भी मोहल्ला पर ...इस मोहल्ले में मै सब को देखना पंसंद करुंगा बजाय की सिर्फ एक खास किस्म के सोच रखने वालों को देखने के ...मै सलीम खान की पैरोकारी नही कर रहा लेकिन अपने जीवन मे हम सभी किसी न किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त होते है इससे निकलना मुश्किल होता है अगर सलीम खान की सोच सबको साप्रदायिक लगती है तो उसका विरोध करने वालों की सोच में भी फिरका परस्ती की बूं आती है ...... मोहल्ला फिर किसी की अभिवयक्ति की आजा़दी पर प्रहार नही करेगा यही उम्मीद करता हूं ....ज़रा जल्दी में इस पोस्ट को ख्तम कर रहा हूं लेकिन मेरी इस गुजा़रिश पर गौर फरमाइएगा...

मीडिया का है ये तमाशा.. जिसका पैसा उसकी भाषा

Monday, June 15, 2009


आज भारत में लोगों का मीडिया पर विश्सास बढा है..लोकतंत्र का चौथा स्तंभ इस पर खुश हो सकता है अपनी पीठ थपथपा सकता है की लोग आज नोताओं की बात भले ही सुने या न सुने लेकिन मीडिया की हर बात पर आम आदमी गौ़र फ़रमाता है ..आम लोग ये समझते है की कोइ और उनकी बात आगे रखे या न रखे लेकिन मीडिया उनकी सही नुमाइंदगी जरुर करेगा लेकिन ये लोक तंत्र का चौथा स्तंभ अब अपने दम पर नही बल्कि एसे अलग अलग विचारधाराओं वाली बड़ी बड़ी फंडिग एजेंसियों के बूते खड़ा है. जो पैसा लगाये मीडिया उसकी जु़बान बोलने लगता है ऐसे में हम ये कैसे कह सकते है की मीडिया आम आदमी या आम भारतीय की बात आगे रखता है..पिछले दिनों मुझे एक मेल प्राप्त हुई जिसमें भारतीय मीडिया किस तरह की फंडिग के सहारे काम करता है और मीडिया के अलग अलग मालिकान की वजह से मीडिया की सोच और ख़बरे दिखाने का अंदाज भी कैसे बदल जाता है इस बात को समझाया गया है.... हो सकता है की वो किसी सिरफि़रे की करतूत हो लेकिन जो तथ्य उस मेल के जरिये बताये गये है वो कुछ सोचने को तो मजबूर करते ही है.. ये तथ्य कोई नए नही है लेकिन सवाल ये उठता है की पहले से तय विचारधारा या बाहरी फंडिग के इशारे पर काम करने वाले चैनलों से कोइ ये उम्मीद कैसे कर सकता है की वो समाज के सभी तबको की नूमाइंदगी ईमानदारी से कर सकता है.... कोइ चैनल क्मयूनिस्टों के माउथपीस के तौर पर काम करता है तो किसी मे किसी मे किसी बड़े कांग्रेसी नेता का पैसा लगा है किसी पर संघ का हाथ है तो ज्यादातर तो विदेश और चर्च से आने वाले पैसे के दम पर चलते है वहीं दूर्दशन की ख़बरों में सरकार के रोल को तो सब जानते है ....अब तो एक और ख़तरनाक ट्रेंड सामने आ रहा है .. राजनितिक पार्टियां अपने खुद के चैनल ला रही है कुछ प्रत्यत्तक्ष तौर पर तो कुछ पर्दे के पीछे से दक्षिण भारत में इसकी शुरुआत हम देख ही रहे है करुणानिधि से लेकर जयललिता तक सब इसमे शामिल है... बीजेपी के असर वाली इंडिया टूडे के एनडीटीवी के हाथ मे जाने के बाद उसके ख़बरों का कलेवर और तेवर कैसे बदला है ये आप देख सकते है यही हालत अख़बारों की भी है कुल मिला के पूरा का पूरा मीडिया इसकी गिरफ्त में एसा नही है की ये कोइ आज की बात नही है बरसों से एसा हो रहा है लेकिन इस तरह से हम मीडिया में ऑब्जेक्टिवटी होने का बात कैसे कह सकते हैं? हम ये भ्रम कैसे पाल सकते है की मीडिया जो दिखा रहा है वो बेबाक और इमानदार है? हम ये कैसे सोच सकते है की मीडिया की आवाज़ पूरे भारत की आवाज़ है न की सिर्फ किसी एक खास तबके ,पार्टी या पैसे देने वाले ग्रुप की?... ये ठीक है की कई बार मीडीया ने काफी अच्छा काम किया है और कई एसे लोगों को मीडीया के चलते ही न्याय मिल सका जिन्हे इसकी उम्मीद नही थी... लेकिन पहले से ही टीआरपी के वायरस से ग्रस्त मीडिया की ये स्थिती वाकई चिंता का विषय है...और इस पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिये ............................................

वो रेसिस्ट है तो हम क्या है?

Friday, June 12, 2009



आस्ट्रेलिया में भारतीयों पर हो रहे (नस्लीय) हमलों को लेकर इन दिनों काफी शोर सुनाई दे रहा है ...रंग के आधार पर वहां भारतीयों को शिकार बनाया जा रहा है ये वाकई शर्मनाक है लेकिन हमारे देश में आये दिन इससे भी कुछ शर्मनाक घटता है पर उसका विरोध कहीं सुनाइ नही देता क्योंकि फोटोजेनिक चेहरों में दिलचस्पी ऱखने वाले मीडिया को भी उसमें टीआरपी मिलती नही दिखती...इसलिए वो भी इसे दरकिनार कर देता है..
ऐ. चिंकी चल कार में बैठ जा ..वो देख हब्शी जा रहा है ...अरे अब तो कालू भी यहां पढ़ने आने लगे...ये शब्द आपकों दिल्ली विश्वविघालय में आये दिन सुनाइ देंगे..... अपनें ही देश के उत्तर पूर्व कोने से आने वाले लोगों को हमारे ही देश मे परगृहियों की तरह ट्रीट किया जाता है महज़ उनकी शीरिरीक बवावट, पहनावे और खान पान के तरीकों के आधार पर.
मेरे कई एसे दोस्त है जो पहले दिल्ली यूनिवर्सिटी में पढ़ते थे और बाद मे आगे की पढाई करने वो आस्ट्रेलिया या दूसरे देशों मे चले गये वो जब यहां थे तो उनहोने देश है अंदर ही होने वाले इस रंगभेद के खिलाफ कभी आवाज़ नही उठाई बल्कि वो खुद इसका हिस्सा बने रहे और आज देश के बाहर रंगभेद का शिकार होने पर उन्हे चोट पहुंच रही है... ये ठीक है की वहां रंग भेद के साथ साथ भारतीयों पर जानलेवा हमले भी किये जा रहे है जो शर्मनाक है और इसका विरोध होना चाहिये लेकिन लेकिन देश के अंदर जब हम अपने ही लोगों को नीचा दिखाने से बाज़ नही आते तों बाहर वालों को सही होने की सीख हम किस मुह से दे ...दरअसल जैसे जैसे हमें अपने सभ्य होने का गुमान होता जा रहा है वैसे वैसे हम सच्चाई से मुह मोड़ते जा रहे है ...जो तबका इस पुरे घटनाक्रंम का शिकार हो रहा है वो सभ्रात और पढा लिखा तबका है लेकिन अपने ही देश में होने पर ये तबका भी कमोबेश वैसे ही पेश आता है जैसा जि़क्र मैने उपर किया है ..आखिर हम भी तो कहीं न कहीं दोहरी मानसिकता के शिकार है ..
हम आज भी दलितों को आज भी अछूत समझते है...क्यों ?
उत्तर पूर्व के लोगों को हम अपना हिस्सा ही नही समझते क्यों ?
बस में अगर सिर पर कोई गोल टोपी लगाये लंबी दाढी वाला शख्स सवार हो जायें तो हम उसे शक़ की नज़र से देखने लगते है..क्यों ?
किसी अफ्रिकी मूल के शख्स को देखते ही कालू या हब्शी कहते हुए हमे ज़रा भी देर नही लगती क्यों ?
मुम्बई में किसी को भईया कह देने पर वो भड़क जाता है क्यों ?
अखबारों के मेटरिमोनियल में हमेशा गोरी लंबी और सुंदर दिखने वाली वधु के ही विज्ञापन देते है क्यों ?
किसी के भोजन के तौर तरीकों के चलते गै़रों जैसा बर्ताव करने है क्यों ?
अंतर्राजातीय विवाह आज भी हमारे यहां चौकैने वाली घटना होती है क्यों ?
ये वो चंद सवाल है जिनका जवाब ढूंढना बेहद जरुरी है ...आस्ट्रेलिया की घटना ने हमे आत्मविषलेशण का मौका दिया है और इस पर हमे गंभीरता से सोचना चाहिये...जो आस्ट्रेलिया में घट रहा है वो बिल्कुल भी बर्दाशत नही किया जाना चाहिये लेकिन देश के अंदर ही अपनों को पराया होने का अहसास करना कहीं ज्यादा शर्मनाक है और इसके लिए कोशिशे कही बड़े पैमाने पर किये जाने कि जरुरत है.....कबीर ने कहा है
बूरा जो देखन मै चला ,बुरा न मिल्या कोई जो दिल देखन आपना मुझसे बुरा न कोई

कहानी/ टोबा टेक सिंह -सआदत हसन मंटो

Thursday, May 28, 2009

कहानी/ टोबा टेक सिंह


बंटवारे के दो-तीन साल बाद पकिस्तान और हिंदुस्तान की सरकारों को ख्याल आया कि साधारण कैदियों की तरह पागलों का भी तबादला होना चाहिए। यानी जो मुसलमान पागल हिंदुस्तान के पागलखाने में हैं,उन्हें पाकिस्तान पहुंचा दिया जाए और जो हिंदू पाकिस्तान के पागलखानों में हैं, उन्हें हिन्दुस्तान के हवाले कर दिया जाए।
मालूम नहीं यह बात ठीक थी या नहीं। बहरहाल बुद्धिमानों के फैसले के अनुसार इधर-उधर ऊँचे स्तर की कांफ्रेंस हुई और आखिरकार एक दिन पागलों के तबादलों के लिए नियत हो गया। अच्छी तरह छानबीन की गई। वे मुसलमान पागल,जिनके अभिभावक हिंदुस्तान में थे,वहीं रहने दिए गए थे और जो बाकी थे,उन्हें सीमा पर रवाना कर दिया गया था। यहां पाकिस्तान से,क्योंकि करीब-करीब सब हिंदू-सिख जा चुके थे,इसलिए किसी को रखने-रखाने का सवाल ही न पैदा हुआ। जितने हिंदू-सिख पागल थे,सबके सब पुलिस के संरक्षण में सीमा पर पहुंचा दिए गए। उधर की मालूम नहीं,लेकिन इधर लाहौर के पागलखाने में जब इस तबादले की खबर पहुंची तो बड़ी दिलचस्प और कौतूकपूर्ण बातें होने लगीं। एक मुसलमान पागल,जो बारह बरस से रोज़ाना बकायदगी के साथ नमाज पढ़ता था,उससे जब उसके दोस्त ने पूछा-मौलवी साहब,यह पाकिस्तान क्या होता है?तो उसने बड़ा सोच-विचारकर जवाब दिया -"हिंदुस्तान में एक जगह है,जहां उस्तरे बनते हैं।"
यह जवाब सुनकर उसका मित्र संतुष्ट हो गया।
इसी तरह एक सिख पागल ने एक दूसरे सिख पागल से पूछा-"सरदार जी,हमें हिंदुस्तान क्यों भेजा जा रहा है? हमें तो वहां की बोली भी नहीं आती।"
दूसरा मुस्करा दिया-“मुझे तो हिंदुस्तान की बोली आती है-हिंदुस्तानी बड़े शैतानी आकड़-आकड़ फिरते हैं।"
एक मुसलमान पागल ने नहाते-नहाते पाकिस्तान ज़िंदाबाद का नारा इस ज़ोर से बुलंद किया कि फर्श पर फिसलकर गिरा और अचेत हो गया। कुछ पागल ऐसे भी थे,जो पागल नहीं थे। इनमें अधिकतर ऐसे कातिल थे,जिनके रिश्तेदारों ने अफसरों को दे-दिलाकर पागलखाने भिजवा दिया था कि वे फांसी के फंदे से बच जाएं।
ये कुछ-कुछ समझते थे कि हिंदुस्तान का क्यों विभाजन हुआ है और यह पाकिस्तान क्या है, लेकिन सभी घटनाओं से ये भी बेख़बर थे। अख़बारों से कुछ पता नहीं चलता था और पहरेदार सिपाही अनपढ़ जाहिल थे। उनकी बातचीत से भी वे कोई नतीजा नहीं निकाल सकते थे। उनको सिर्फ इतना मालूम था कि एक आदमी मुहम्मद अली जिन्ना है,जिसको क़ायदे-आजम कहते हैं। उसने मुसलमानों के लिए एक अलग मुल्क बनाया है,जिसका नाम पाकिस्तान है। वह कहां है? इसकी स्थिति क्या है? इसके विषय में वे कुछ नहीं जानते थे। यही कारण है कि पागलखाने में वे सब पागल,जिनका दिमाग़ पूरी तरह से खराब नहीं था,इस ऊहापोह में थे कि वे पाकिस्तान में हैं या हिंदुस्तान में। अगर हिंदुस्तान में हैं तो पाकिस्तान कहां है और अगर वे पाकिस्तान में हैं तो यह कैसे हो सकता है कि कुछ अर्सा पहले यहां रहते हुए भी हिंदुस्तान में थे। एक पागल तो पाकिस्तान और हिंदुस्तान और हिंदुस्तान और पाकिस्तान के चक्कर में ऐसा पड़ा कि और ज्यादा पागल हो गया। झाडू देते-देते एक दिन दरख्त पर चढ़ गया और एक टहनी पर बैठकर दो घंटे लगातार भाषण देता रहा,जो पाकिस्तान और हिंदुस्तान के नाजुक मामले पर था। सिपाहियों ने उसे नीचे उतरने के लिए कहा तो वह और ऊपर चढ़ गया। डराया-धमकाया गया तो उसने कहा"मैं न हिंदुस्तान में रहना चाहता हूं न पाकिस्तान में,मैं इस पेड़ पर ही रहूंगा।"
बड़ी मुश्किलों के बाद जब उसका दौरा ठंडा पड़ गया,तो वह नीचे उतरा और अपने हिंदू-सिख दोस्तों से गले मिल-मिलकर रोने लगा। इस ख्याल से उसका दिल भर आया कि वे उसे छोड़कर हिंदुस्तान चले जाएंगे।
एक एम. एस. सी पास रेडियो इंजीनियर,जो मुसलमान था और दूसरे पागलों से बिलकुल अलग-थलग बाग की एक खास रौश पर सारा दिन खामोश टहलता रहता था,में यह तब्दीली प्रकट हुई किउसने तमाम कपड़े उतारकर दफेदार के हवाले कर दिए और नंग-धड़ंग सारे बाग में चलना शुरू कर दिया।
चनपुट एक मोटे मुसलमान पागल ने,जो मुस्लिम लीग का एक सक्रिय कार्यकर्ता रह चुका था और दिन में पंद्रह-सोलह बार नहाया करता,एकदम नई आदत छेड़ दी। उसका नाम मुहम्मद अली जिन्ना है। उसकी देखा-देखी एक सिख पागल मास्टर तारासिंह बन गया। क़रीब था कि उस जंगले में खूनखराबा हो जाए,मगर दोनों को ख़तरनाक पागल करार देकर अलग बंद कर दिया गया।
लाहौर का एक नौजवान हिंदू वकील था,जो मुहब्बत में पड़कर पागल हो गया था। जब उसने सुना कि अमृतसर हिंदुस्तान में चला गया है तो उसे बहुत दुख हुआ। उसी शहर की एक हिंदू लड़की से उसे प्रेम हो गया था। यद्यपि उसने उस वकील को ठुकरा दिया था,मगर दीवानगी की हालत में भी वह उसको भूला नहीं था। चुनांचे वह उन तमाम मुस्लिम लीडरों को गालियां देता था,जिन्होंने मिल-मिलाकर हिंदुस्तान के दो टुकड़े कर दिए। उसकी प्रेमिका हिंदुस्तानी बन गई और वह पाकिस्तानी।
जब तबादले की बात शुरू हुई तो वकील को पागलों ने समझाया। वह दिल छोटा न करे,उसको हिंदुस्तान भेज दिया जाएगा-उस हिंदुस्तान में, जहां उसकी प्रेमिका रहती है,मगर वह लाहौर छोड़ना नहीं चाहता था,इस ख्याल से कि अमृतसर मे उसकी प्रेक्टिस नहीं चलेगी। यूरोपियन वार्ड में दो ऐंग्लो-इंडियन पागल थे। उनको जब मालूम हुआ कि हिंदुस्तान को आजाद कर अंग्रेज चले गए हैं तो उनको बड़ा दुख हुआ। वे छिप-छिपकर घंटों इस समस्या पर बातचीत करते रहते कि पागलखाने में उनकी हैसियत किस तरह की होगी-यूरोपीय वार्ड रहेगा या जाएगा। ब्रेकफास्ट मिला करेगा या नहीं। क्या उन्हें डबल रोटी के बजाए ब्लडी इंडियन चपाती तो ज़हरमार नहीं करनी पड़ेगी?
एक सिख था,जिसको पागलखाने में दाखिल हुए पंद्रह वर्ष हो चुके थे। हर समय उसकी ज़बान से अजीब-गरीब शब्द सुनने में आते थे,"ओपड़ दी गड़गड़ दा एनेक्स दी बेध्याना दी मुंग दी दाल आफ दी लालटेन।"वह दिन को सोता था न रात को। पहरेदारों का कहना था कि पन्द्रह वर्ष के लंबे अर्से में वह एक क्षण के लिए भी न सोया था। लेटता भी नहीं था। अलबत्ता कभी-कभी किसी दीवार के साथ टेक लगा लेता था। हर समय खड़े रहने से उसके पांव सूज गए थे। पिंडलियां भी फूल गईं थीं,मगर इस शारीरिक तकलीफ के बावजूद लेटकर आराम नहीं करता था। हिंदुस्तान-पाकिस्तान और पागलों के तबादले के विषय में जब कभी पागलों में चर्चा होती थी तो वह बड़ी ध्यान से सुनता था। कोई उससे पूछता कि उसका क्या ख्याल है तो वह बड़ी गंभीरता से जवाब देता "ओपड़ दी गड़गड़ दी एनेक्स दी बेध्याना दी मूंग दी दाल आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट।"
लेकिन बाद में “आफ दी पाकिस्तान गवर्नमेंट” की जगह आहफ दी टोबा टेकसिंह ने ले ली और उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू कर किया कि टोबा टेक सिंह कहां है,कहां का रहनेवाला है? लेकिन किसी को भी मालूम नहीं था कि वह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में। जो बताने की कोशिश करते थे,खुद इस उलझन में फंस जाते थे कि स्यालकोट पहले हिंदुस्तान में होता था, पर अब सुना है पाकिस्तान में है। क्या पता कि लाहौर जो अब पाकिस्तान में है,कल हिंदुस्तान में चला जाएगा या सारा हिंदुस्तान ही पाकिस्तान बन जाए और यह भी कौन सीने पर हाथ रखकर कह सकता था कि हिंदुस्तान और पाकिस्तान दोनों किसी दिन सिरे से गायब न हो जाएंगे।
उस सिख पागल के केश छितरे होकर बहुत थोड़े ही रह गए थे। चूंकि वह बहुत कम नहाता था, दाढ़ी और बाल आपस में जम गए थे,जिसके कारण उसकी शक्ल बड़ी भयानक हो गई थी। लेकिन वह आदमी किसी का नुकसान नहीं करता था। पंद्रह वर्षों में उसने किसी से झगड़ा-फसाद नहीं किया था। पागलखाने के जो पुराने नौकर थे,वे उसके बारे में इतना जानते थे कि टोबा टेकसिंह में उसकी कई जमीनें थीं। अच्छा खाता-पीता जमींदार था कि अचानक ही दिमाग उलट गया। उसके रिश्तेदार लोहे की मोटी-मोटी जंजीरों में उसे बांध कर लाए और पागलखाने में दाखिल करा गए।
महीने में एक बार मुलाकात के लिए ये लोग आते थे और उसकी राजी-खुशी मालूम करते चले जाते थे। एक मुद्दत तक यह क्रम चलता रहा लेकिन जब पाकिस्तान-हिंदुस्तान की गड़बड़ शुरू हो गई तो उनका आना बंद हो गया।
उसका नाम बिशनसिंह था,मगर सब उसे टोबा टेकसिंह कहते थे। उसे बिल्कुल यह मालूम न था कि दिन कौन-सा है,महीना कौन-सा है य कितने साल बीत चुके हैं?लेकिन हर महीने जब उसके स्वजन और संबंधी उससे मिलने आते तो उसे अपने आप पता चल जाता था। चुनांचे वह एक दफेदार से कहता कि उसकी मुलाकात आ रही है। उस दिन वह अच्छी तरह से नहाता,बदन पर खूब साबुन घिसता और सिर में तेल लगाकर कंघी करता। अपने कपड़े, जो वह कभी इस्तेमाल नहीं करता था,निकलवाकर पहनता और यूं सज-बनकर मिलनेवालों के पास जाता। वे उससे कुछ पूछते तो वह चुप रहता था या कभी-कभी "ओपड़ दी एनेक्स दी बेध्याना दी मुंग दी दाल आफ दी लालटेन कह देता।"
उसकी एक लड़की थी जो हर महीने में एक अंगुल बढ़ती-बढ़ती पंद्रह वर्ष में जवान हो गई थी। बिशनसिंह उसे पहचानता ही न था। जब वह बच्ची थी, तब भी अपने बाप को देख कर रोती थी। जवान हुई तब भी उसकी आंखों से आंसू बहते थे।
पाकिस्तान और हिंदुस्तान का किस्सा शुरू हुआ तो उसने दूसरे पागलों से पूछना शुरू किया कि टोबा टेकसिंह कहां है? जब संतोषजनक उत्तर न मिला तो उसकी कुरेद दिन-ब-दिन बढ़ती गई। अब मुलाकात भी नहीं आती है। पहले तो उसे अपने आप पता चल जाता था कि मिलनेवाले आ रहे हैं,पर अब जैसे उसके दिल की आवाज भी बंद हो गई थी, जो उसे उनके आने की ख़बर दिया करती थी।
उसकी बड़ी इच्छा थी कि वे लोग आएं,जो उससे सहानुभूति प्रकट करते थे और उसके लिए फल, मिठाइयां और कपड़े लाते थे। वह यदि उनसे पूछता कि टोबा टेकसिंह कहां है तो वे निश्चित बता देते कि पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में है,क्योंकि उसका विचार था कि वे टोबा टेकसिंह ही से आते हैं,जहां उसकी ज़मीन है।
पागलखाने का एक और पागल ऐसा भी था जो अपने को खुदा कहता था। उससे जब एक दिन बिशनसिंह ने पूछा कि टोबा टेकसिंह पाकिस्तान में है या हिंदुस्तान में,तो उसने अपनी आदत के मुताबिक कहकहा लगाया और कहा"यह न पाकिस्तान में है और न हिंदुस्तान में,इसलिए कि हमने अभी तक हुकम नहीं दिया।"
बिशनसिंह ने खुदा से कई बार मिन्नत-खुशामद से कहा कि वह उसे हुक्म दे दे ताकि झंझट खत्म हो,मगर वह बहुत व्यस्त था,क्योंकि उसे और भी अनगिनत हुक्म देने थे। एक दिन तंग आकर वह उस पर बरस पड़ा,"ओपड़ दी गड़गड़ दी एनेक्स दी मुंग दी दाल आफ वाहे गुरूजी खालसा,एंड वाहे गुरूजी दी फतह-जो बोले सो निहाल-सत्त श्री अकाल।"
उसका शायद यह मतलब था कि तुम मुसलमानों के खुदा हो-सिखों के खुदा होते तो ज़रूर मेरी सुनते।
तबादले के कुछ दिन पहले तक टोबा टेकसिंह का एक मुसलमान,जो उसका दोस्त था,मुलाकात के लिए आया। पहले वह कभी नहीं आया था। जब बिशनसिंह ने उसे देखा तो एक तरफ हटा और वापस जाने लगा। मगर सिपाहियों ने उसे रोका,"यह तुमसे मिलने आया है-तुम्हारा दोस्त फज़लुद्दीन है। "
बिशनसिंह ने फजलुद्दीन को एक नज़र देखा और कुछ बड़बड़ाने लगा। फजलुद्दीन ने आगे बढ़कर उसके कंधे पर हाथ रखा "मैं बहुत दिनों से सोच रहा था कि तुमसे मिलूं,लेकिन फुर्सत ही न मिली-तुम्हारे सब आदमी राजी-खुशी हिंदुस्तान चले गए थे। मुझसे जितनी मदद हो सकी,मैंने की-तुम्हारी बेटी रूपकौर...। "
वह कुछ कहते-कहते रूक गया। बिशनसिंह कुछ याद करने लगा-"बेटी रूपकौर? "
फजलुद्दीन ने कुछ रूककर कहा -"हां..वह...भी ठीक-ठाक है।...उनके साथ ही चली गई थी।"
बिशनसिंह चुप रहा। फजलुद्दीन ने कहना शुरू किया "उन्होंने मुझसे कहा था कि तुम्हारी राजी-खुशी पूछता रहूं। अब मैंने सुना है कि तुम हिंदुस्तान जा रहे हो-भाई बलबीर सिंह और भाई बधवासिंह से मेरा सलाम कहना-और बहन अमृतकौर से भी। भाई बलबीर सिंह से कहना-फजलुद्दीन राजी-खुशी है। दो भूरी भैंसे,जो वे छोड़ गए थे,उनमें से एक ने कट्टा दिया है,दूसरे के कट्टी हुई थी, पर वह छह दिन की होकर मर गई---और---और मेरे लायक जो खिदमत हो कहना। हर वक्त तैयार हूं...और यह तुम्हारे लिए थोड़े से भरूंडे लाया हूं।"
बिशनसिंह ने भरूंडों की पोटली लेकर पास खड़े सिपाही के हवाले कर दी और फजलुद्दीन से पूछा- "टोबा टेकसिंह कहां?"
"टोबा टेकसिंह!" उसने तनिक आश्चर्य से कहा-" कहां है? वहीं है जहां था।"
बिशनसिंह ने पूछा- "पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में?"
"हिंदुस्तान में-नहीं-नहीं,पाकिस्तान में।" फजलुद्दीन बौखला-सा गया।
बिशनसिंह बड़बड़ाता हुआ चला गया-"ओपड़ दी गड़गड़ दी एनेक्स दी बेध्याना दी मुंग दी दाल ऑफ दी पाकिस्तान एंड हिंदुस्तान ऑफ दी दुर फिट्टे मुंह।"
तबादले की तैयारियां पूरी हो चुकी थीं। इधर से उधर और उधर से इधर आने वाले पागलों की सूचियां पहुंच गई थीं और तबादले की तारीख़ भी निश्चित हो चुकी थी। सख्त सर्दियां थीं। लाहौर के पागलखाने से हिंदू-सिख पागलों से भरी लारियाँ पुलिस के दस्ते के साथ रवाना हुईं। संबंधित अफसर भी उनके साथ थे। वाघा बार्डर पर दोनों ओर के सुपरिटेंडेंट एक-दूसरे से मिले और प्रारंभिक कार्यवाही ख़त्म होने के बाद तबादला शुरू हो गया,जो रात भर जारी रहा।
पागलों को लारियों से निकालना और उनको दूसरे अफसरों के हवाले करना बड़ा कठिन काम था। कुछ तो बाहर निकलते ही नहीं थे,जो निकलने को तैयार होते,उनको संभालना होता,क्योंकि इधर-उधर भाग उठते थे। जो नंगे थे,उनको कपड़े पहनाए जाते थे तो वे फाड़कर अपने शरीर से अलग कर देते। कोई गालियां बक रहा है। कान पड़ी आवाज सुनाई नहीं देती थी। पागल स्त्रियों का शोरगुल अलग था। और सर्दी इतने कड़ाके की थी कि दांत से दांत बज रहे थे।
अधिकतर पागल इस तबादले को नहीं चाहते थे। इसलिए कि उनकी समझ में नहीं आता था कि उन्हें अपनी जगह से उखाड़कर कहां फेंका जा रहा है? थोड़े से वे जो सोच-समझ सकते थे,"पाकिस्तान जिंदाबाद " के नारे लगा रहे थे। दो-तीन बार झगड़ा होते-होते बचा क्योंकि कुछ हिंदुओं और सिखों को ये नारे सुनकर तैश आ गया था।
जब बिशनसिंह की बारी आई और जब उसको दूसरी ओर भेजने के संबंध में अधिकारी लिखत-पढ़त करने लगे तो उसने पूछा "टोबा टेकसिंह कहां? पाकिस्तान में या हिंदुस्तान में?"
संबंधित अधिकारी हंसा,बोला "पाकिस्तान में। "
यह सुनकर बिशनसिंह उछलकर एक तरफ हटा और दौड़कर अपने शेष साथियों के पास पहुंच गया। पाकिस्तानी सिपाहियों ने उसे पकड़ लिया और दूसरी तरफ ले जाने लगे,किंतु उसने चलने से साफ इनकार कर दिया "टोबा टेकसिंह कहां है?" और जोर-जोर से चिल्लाने लगा, "ओपड़ दी गड़गड़ दी एनेक्सी दी बेध्याना दी मुंग दी दाल ऑफ टोबा टेकसिंह एंड पाकिस्तान।"
उसे बहुत समझाया गया,"देखो,टोबा टेकसिंह अब हिंदुस्तान में चला गया है-यदि नहीं गया है तो उसे तुरंत ही भेज दिया जाएगा।" किंतु वह न माना। जब ज़बरदस्ती दूसरी ओर उसे ले जाने की कोशिशें की गईं तो वह बीच में एक स्थान पर इस प्रकार अपनी सूजी हुई टांगों पर खड़ा हो गया, जैसे अब कोई ताकत उसे वहां से हटा नहीं सकेगी। क्योंकि आदमी बेज़रर था,इसलिए उसके साथ ज़बरदस्ती नहीं की गई,उसको वहीं खड़ा रहने दिया गया और शेष काम होता रहा।
सूरज निकलने से पहले स्तब्ध खड़े हुए बिशनसिंह के गले से एक गगनभेदी चीख निकली। इधर-उधर से कई अफसर दौड़े आए और देखा कि वह आदमी,जो पंद्रह वर्ष तक दिन-रात अपनी टांगों पर खड़ा रहा था,औंधे मुंह लेटा था। इधर कांटेदार तारों के पीछे हिंदुस्तान था-उधर वैसे ही कांटेदार तारों के पीछे पाकिस्तान। बीच में जमीन के उस टुकड़े पर जिसका कोई नाम नहीं था टोबा टेकसिंह पड़ा था।

मीडियादुत का मर्ज क्या है ?

Tuesday, May 5, 2009

ब्लाग जगत पर इन दिनों मीडिया दूत नाम का एक प्राणी विचरण कर रहा है...इन्होने मीडिया की कुछ कड़वी सच्चाइयां उजागर करने की ठानी है( ये कैसे खुलासे है ये बात समझ से परे है) या तो इन्होने मीडिया में क़दम अभी अभी धरा है या फिर ये कुछ कारणों की बजह से कुंठाग्रस्त हो गये है मीडिया में तमाम बुराइयां है ये सच्चाइ है लेकिन कौन सा पेशा पाक साफ है ये मैं उनसे पुछना चांहुगा...कुछ लोग गिलास को आधा भरा बताते है कुछ लोग आधा खाली....ये अपना अपना नज़रिया है मीडिया दूत को शायद सारे गिलास खाली ही नज़र आते है मीडिया मेंshoshaण की बात से मैं इंकार नही करता लेकिन सिस्टम को पानी पी पी कर कोसने से कुछ नही होता या तो सिस्टम में रह कर आप उसे दुरुस्त करें या फिर छोड़ दे अपने हाल पर ...या फिर एक क़िताब छपवा ले और उसमे अपने तथाकथित खुलासे प्रकाशित करें लेकिन उसे खुद ही पढ़ें ...न्यूज़रुंम के तमाशे कोइ आज की बात नही है ये लम्बे अर्से से हो रहा है...लेकिन शायद दूत के लिए ये सब नया नया है॥ इसलिए वो ज्यादा परेशान है मेरी दूत से कोइ लड़ाइ नही है लेकिन वैचारिक मतभेध है ये खुलासे शायद कुछ नए लोगों को विचलित करने के अलावा कुछ नही कर सकते अगर ये सस्ती लोकप्रियता बटोरने का सटंट है तो आगे बड़ते रहें॥ हम गंदी नाली से बदबू आने की बात करते है लेकिन उसे साफ करने की हिम्मत नही करते बल्कि दूसरों को भी उसके पास से गुज़रने से मना करते है॥की कोइ और भी उसकी सफाइ न करे ...मेरी मीडियीदूत से विनती है की वो माडिया मे आने का सोच रहे लोगो क विचलित न करें॥ न ही इसमे काम करने वालों को वो सच्चाइया बतायें जो उन के रोजमर्रा का बात है हां कुछ सार्थक करना चाहते है तो उनका स्वागत है... शायद ये वैचारिक लड़ाइ आगे भी चले...

समझदारों समझो.......

Friday, May 1, 2009


जहां मै काम करता हूं वहां ऑफिस के बाहर एक चाय वाला बैठता है...उसकी कुल्लड़ की चाय पत्रकारों के बीच काफी मांग रहती है हमारे चैनल के अलावा भी ..एक आपको आगे रखने वाले तेज़ तरार चैनल के कुछ नामी गिरामी पत्रकार भी वहां चाय पिने पहुंच जाते अमूमन सभी लोग चाय पीने के बाद अपना चाय का कुल्लड़ वहीं बह रही एक नाली जिसका बहना बंद हो चुका है उसमे अपना अपना कुल्लड़ फेंक के चल देते है... वे चाय वाला जिसका नाम सीता राम है और वो इसी नाम से मशहूर भी है वो बेचारा इन ज्ञानी पत्रकारों से मान सुनहार करता रहता है की उस नाली मे कृप्या कुल्लड़ न फेंके लेकिन कोइ उसकी नही सुनता....दुनिया भर को क़ानून का पाठ पड़ाने वाले सबको कोसने वाले ये तथाकथित पत्रकार खुद के गिरेबान मे क्यो नही झांकते क्यों सीता राम की गुहार नही सुनते............

जागो रे.........

Wednesday, April 29, 2009



आज कल कुछ लिखने का वक्त नही मिल रहा है जब वक्त मिलता है कुछ करने का मन नही रहता बेमन से लिखने का कुछ फायदा नही है यही सोचकर खुद को रोके हुए हूं लेकिन मैं आजकल उलझन में हूं ...इस उलझन के चलते ही मै ये पोस्ट लिख रहा हूं कुछ रोज़ पहले मैने एक पोस्ट लिखी थी की मै वोट क्यो दूं ...लोकतंत्र का महापर्व चल रहा है इसमे शरीक होना चाहता हं लेकिन मुझे वजह नही मिल रही .... अभी एक दो दिन पहने एक शख्स से मिला मेरे क़रीबी है हम कार से किसी समारोह मे शामिल होने जा रहे थे तभी रेडियों पर लोगों को वो़ट डालने की अपील वाले विज्ञापन आने लगे ....विज्ञापन सुनकर वे शख्स झुंझला गये कहने लगे वोट डालों वोट डालों एक वोटर आइडी कार्ड बनवाने मे इतने पापड़ बेलने पड़ते है की कोइ नौकरीपेशा आदमी बनवाने की सोच भी नही सकता एक तो ढिला ढाला सरकारी रवैया उस पर अव्यवसथाएं ...फिर वो कहने लगे की अगर ये काम किसी प्राइवेट कम्पनी के सौंप दिया जायें तो शायद वे ये काम बेहतर ढंग से कर सकें ....मुझे उनकी ये बात कुछ हद तक सही लगी ...फिर मुझे खुद के साथ बीता वाक्या याद आया टीवी के एक विज्ञापन से प्रभावित होकर मैने खुद का ऑन लाइन वोटर रजिस्ट्रेशन कराने का नाकाम कोशिश की थी मुझे एक फार्म ई मेल के ज़रिये भेज दिया गया था और उसे भरकर आगे की कार्यवाही करने के लिए कहा गया था वो लेकर जब मै बि एल ओ के पास पहुंचा तो उसे एसा किसी चीज़ की जानकारी ही नही थी ...पेशे से पत्रकार हुं इसलिए मेरे पास समय अक्सर कम होता है लेकिन वहां करीब एक घंटे तक मुझे माथापच्चची करनी पड़ी.. उसके बाद मुझे मेरा नाम लिस्ट मे देखने के लिए कहा गया जब मै लिस्ट मांगने संबधित कर्मचारी के पास गया तो उसने मुझसे कहा की मेरे इलाके के मतदाताओं की लिस्ट चोरी हो गइ है दुसरी लिस्ट तीन दिन बाद आयेगी...मेरे साथ एक दुसरे सज्जन भी थे उनके साथ भी कमोबेश यही सथ्ति थी ये जानकर वो भी अपना मन मसोस कर रह गये फिर उन्होने एक भद्दी सा गाली दी और बाहर आ गये... उसी ऑफिस में क़रीब तीन दर्जन लोग अपना नाम उस लिस्ट मे खोज रहे थे और उनमे से कइ तो अनपड़ थे वो दुसरों का मदद लेना चाह रहे थे लेकिन वो खुद अपना नाम उन हज़ारों लोगों मै नही खोज पा रहे थे सो दुसरों का मदद क्या करते .....कुछ बी एल ओ और अधिकारी बिरयानी खा रहे थे कुछ कर्मचारी सिगरोट पी रहे थे कुछ कर्मचारी लोगों का मदद कर रहे थे...हम शादी मे पहुंच चुके थे.. लोग खाने का मजा़ ले रहे थे हमने भी खाना खाया वहां चुनाव लड़ रहे एक नेता के नुमाइंदे मौजुद थे..वो हम से उन्हे ही वोट डालने की अपील करने लगे फिर वहां जात पात के समीकरण समझाये जाने लगे थोड़ी देर बाद हम घर लौट आये इतने सब काम में दो ही घंटे लगे................

मै क्यो दूं वोट?

Wednesday, April 22, 2009


यूवाओं को खुद को प्पपू साबित न करने का संदेश देते तमाम विज्ञापन इन दिनो देख रहा हूं सुन रहा हूं...लेकिन मैं पूछता हूं की मै क्यों वोट दूं मेरे पास विक्लप कितने है... क्या मै उसे वोट दूं ?..जिस पर 35 आपराधिक मामले दर्ज है या उससे बेहतर विक्लप को जिस पर उससे कुछ कम मामले दर्ज है... नतीजा तो ढाक के तीन पात ही रहेगा ना सत्त्ता में तो एक अपराधी ही आयेगा फिर क्यों मे एक अपराधी को सत्त्ता मे आने का मौका दूं मै क्यो वोट दूं ?...चलिए माना की सब जगह अपराधी नही होते लेकिन लोकतंत्र का खेल भी तो गज़ब है अगर मैं किसी वामपंथी के सामने किसी दुसरे उम्मीदवार को वोट दूं और वो उम्मीदवार या उसकी पार्टी केंद्र मे उस वाम पंथी के साथ ही सरकार बना ले तो मै तो ठगा सा महसूस करुंगा ना ..तो मै क्यों वोट दूं ? चलिए शायद एसा न भी हों लेकिन उम्मीदवार जीतने के बाद अगर पांच साल मुझे शक्ल न दिखायें तो एसे उम्मीदवार को मै क्यों वोट दूं ?...इसके अलावा भी तमाम सवाल हैं ज़हन मे जब तक उनका जवाब नही मिलता मै क्यों वोट दूं?

खुद से ही हर सवाल पूछता हूं मै...

Monday, April 6, 2009

आज कल खुद से ही जूझता हूं मै..
खुद से ही हर सवाल पूछता हूं मै...
कुछ पाने के लिए कुछ खो रहा हूं मै..
या कुछ खोने के लिए के लिए पा रहा हूं मै...
समझ नही आता की कहां जा रहा हूं मै...
क्या अपने से किया वादा निभा रहा हू मै..
या नए वादों के वास्ते राह बना रहा हूं मै...
बोल है बिखरे बिखरे से
पर हर पल नया गीत गा रहा हूं मै...
हर चाहत का कत्ल करता हूं मै
लेकिन खुद को कातिल कहने से डरता हूं मै
लोगों को सामने ज़िंदादिल रहता हूं बरबस ही
पर तनहाई में आजकल मरता हूं मै
आज कल खुद से ही जूझता हूं मै..
खुद से ही हर सवाल पूछता हूं मै...

 
 
 

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