हाज़मा दुरुस्त रखें....आ रहा है शिव वड़ापाव

Thursday, June 18, 2009


कहा जाता है की किसी इंसान के दिल तक पहुंचना हो तो उसके पेट के जरिये पहुंचा जा सकता है और लगता है की ये बात अब राजनेताओं को भी समझ आ गई है और अब लोगों को स्वाद का गुलाम बनाकर वोट खिंचने की तैयारी की जाने लगी है ......... इसी की बानगी मुंम्बई मे देखने को मिल रही है..... जहां मराठा मानूस का राग अलापने वाली शिव सेना ने अपने ब्रांड नाम से वड़ापाव लॉच किया है एक ओर तो दावा किया जा रहा है की लोग इसके स्वाद के इतने मुरीद हो जायेंगे की इसको खाने वालों के वोट सीधे शिवसेना के खाते मे ही जायेंगे वही इसके ज़रिये हज़ारों मराठी यूवकों को रोज़गार देने का दावा भी किया जा रहा है यानी की एक तीर से दो नही तीन निशाने ....27 केंद्रों पर बनने वाले इन वड़ापाव को बेचने के लिए लगभग 1500 स्टाल्स बनायें गये हैं जिन पर इन शिव बड़ापाव की बिक्री होगी साथ ही इसे ब्रांडेड लुक देने की भी तैयारी है ... शिव सेना जानती है की इस अदने से वड़ापाव का महाराषट्र को लोगों की जिंदगी में क्या रोल है ....मुम्बई में जब हजारों लोगो को खाने के लाले पड़ते है तो वड़ा पाव ही एसे लोगों का सहारा बनता है..इसके अलावा ये निचले से लेकर उपर तक के तबके की पसंद है ... दिल्ली से मुम्मबई जाते हुए ट्रेन में जैसे ही वड़पाव गर्मा गर्म वड़पाव की आवाज़ आपके कानों में पडने लगे तो समझ जाइये की आप महाराषट्र मे एंटर हो चुके हैं यानी की वड़पाव की पहुंच महाराषट्र एक कोने से लेकर दूसरे कोने तक है यही वजह है की शिवसेना ने इस बार वड़पाव को अपनी राजनिति का हथियार बनाने की कोशिश की है.. ये तो शुरुआत है कांग्रेस ने भी इसके जवाब में कांग्रेस पोहा लाने की तैयारी कर ली है अगर एसा हुआ तो राजनितक पार्टियों मे एक दिलचस्प होड़ शुरु हो सकती है शायद उत्तर भारतीयों और बिहारीयों के खिलाफ ज़हर उगलने वाली शिवसेना के विरोध मे बिहार का कोई राजनितिक दल अपने नाम से सत्तू लॉंच करदे ...और हो सकता है की देखा देखी भाजपा बसपा सपा और न जाने कौन कौन अपने नाम से क्या क्या बेचना शुरु कर दें ....और आखिर फ्रेचाइजी के जमाने में लोगों तक पहुचने का इससे अच्छा तरीका क्या हो सकता है ....बात मुम्बई की करें तो वहा यो सारी कवायद विधानसभा चुनावों को देखते हुए की जा रही है लेकिन अब ये देखना होगा की चुनावों के दौरान आचार सहिता के चलते क्या चुनाव आयोग इस बवड़ापाव और पोहे की बिक्री पर रोक लगायेगा खैर.... वो तो चुनाव करीब आने पर हा पता चलेगा लेकिन एक बात तो साफ है की अब जब राजनितिक पार्टीयों की नज़र आपके पेट तक पहंच चुकी है तो एसे में जरुरी है की हम सब अपने अपने हाज़मे को दुरुस्त रखे क्योंकी वड़ापाव के साथ साथ चुनावी जंग मे और बहुत कुछ भी हज़म करना पड़ सकता है

क्या सलीम खान को मोहल्ले से बाहर करना जायज़ है?

Wednesday, June 17, 2009


पिछले दिनों सलीम खान नाम के एक शख्स नें मोहल्ला पर कुछ लिख क्या दिया इस पर कुछ ठेकेदारों ने हंगामा बरपा दिया सलीम की एंट्री मोहल्ला में बंद कर दी गई भई क्या अब भी हम उस युग में जी रहे है जहां किसी का हुक्का पानी बंद कर दिया जाता है लोकतंत्र आगर आप को कुछ कहने की आजादी देता है तो कुछ सुनने का माद्धा भी हम सभी को रखना चाहिये सलीम खान की सोच संकीरेण है यै नही इस बारें तो मै कुछ नही कहना चाहता लेकिन मोहल्ले से उन्हे बाहर करने वाले और करवाने वालों की सोच बहुत छोटी है ये बात मुझे पता लग गई अगर कोई ब्लाग के जरिये किसी मज़हब की पैरोकारी कर रहा है तो करने दिजीये ना ...आप अपने विवेक से काम लिजिये...मुझे अविनाश जी से अपनी मुलाकात ध्यान है हम सराय मै ब्लागर्स की मीटिंग के तहत मिले थे तब मुझे ब्लाग के विषय में कुछ खास पता नही था लेकिन अविनाश जी के विचारों ने मुझ् ब्लागिंग के लिए प्रेरित किया और फिर मैने अपने प्पत्रकारिता के अंतिम साल में ब्लागिंग के ही अपने प्रोजेक्ट के तौर पर चुना,. तब अविनाश जी से मै उनके घर पर मिला और उनका इंटरव्यू किया... जिस चीज़ ने मुझे ब्लागिंग के लिए प्रेरित किया वो थी इसकी लोकतंत्र को और मज़बूत करने वाली बात की किस तरह यहां कोई भी कुछ भी लिख सकता है और अपने विचार रख सकता है ये बात मुझे अविनाश जी ने बताई ...मै अविनाश जी सो पूछना चाहता हूं की वो लोकतांत्रिक रवैये वाली बात अब कहां गयी क्यों कुछ समाज के ठेकेदारों के दबाव मे आकर आपने सलीम खान को प्रतिबंधित कर दिया ब्लाग पर सैंसर की बात समझ मे नही आयी वो भी मोहल्ला पर ...इस मोहल्ले में मै सब को देखना पंसंद करुंगा बजाय की सिर्फ एक खास किस्म के सोच रखने वालों को देखने के ...मै सलीम खान की पैरोकारी नही कर रहा लेकिन अपने जीवन मे हम सभी किसी न किसी पूर्वाग्रह से ग्रस्त होते है इससे निकलना मुश्किल होता है अगर सलीम खान की सोच सबको साप्रदायिक लगती है तो उसका विरोध करने वालों की सोच में भी फिरका परस्ती की बूं आती है ...... मोहल्ला फिर किसी की अभिवयक्ति की आजा़दी पर प्रहार नही करेगा यही उम्मीद करता हूं ....ज़रा जल्दी में इस पोस्ट को ख्तम कर रहा हूं लेकिन मेरी इस गुजा़रिश पर गौर फरमाइएगा...

मीडिया का है ये तमाशा.. जिसका पैसा उसकी भाषा

Monday, June 15, 2009


आज भारत में लोगों का मीडिया पर विश्सास बढा है..लोकतंत्र का चौथा स्तंभ इस पर खुश हो सकता है अपनी पीठ थपथपा सकता है की लोग आज नोताओं की बात भले ही सुने या न सुने लेकिन मीडिया की हर बात पर आम आदमी गौ़र फ़रमाता है ..आम लोग ये समझते है की कोइ और उनकी बात आगे रखे या न रखे लेकिन मीडिया उनकी सही नुमाइंदगी जरुर करेगा लेकिन ये लोक तंत्र का चौथा स्तंभ अब अपने दम पर नही बल्कि एसे अलग अलग विचारधाराओं वाली बड़ी बड़ी फंडिग एजेंसियों के बूते खड़ा है. जो पैसा लगाये मीडिया उसकी जु़बान बोलने लगता है ऐसे में हम ये कैसे कह सकते है की मीडिया आम आदमी या आम भारतीय की बात आगे रखता है..पिछले दिनों मुझे एक मेल प्राप्त हुई जिसमें भारतीय मीडिया किस तरह की फंडिग के सहारे काम करता है और मीडिया के अलग अलग मालिकान की वजह से मीडिया की सोच और ख़बरे दिखाने का अंदाज भी कैसे बदल जाता है इस बात को समझाया गया है.... हो सकता है की वो किसी सिरफि़रे की करतूत हो लेकिन जो तथ्य उस मेल के जरिये बताये गये है वो कुछ सोचने को तो मजबूर करते ही है.. ये तथ्य कोई नए नही है लेकिन सवाल ये उठता है की पहले से तय विचारधारा या बाहरी फंडिग के इशारे पर काम करने वाले चैनलों से कोइ ये उम्मीद कैसे कर सकता है की वो समाज के सभी तबको की नूमाइंदगी ईमानदारी से कर सकता है.... कोइ चैनल क्मयूनिस्टों के माउथपीस के तौर पर काम करता है तो किसी मे किसी मे किसी बड़े कांग्रेसी नेता का पैसा लगा है किसी पर संघ का हाथ है तो ज्यादातर तो विदेश और चर्च से आने वाले पैसे के दम पर चलते है वहीं दूर्दशन की ख़बरों में सरकार के रोल को तो सब जानते है ....अब तो एक और ख़तरनाक ट्रेंड सामने आ रहा है .. राजनितिक पार्टियां अपने खुद के चैनल ला रही है कुछ प्रत्यत्तक्ष तौर पर तो कुछ पर्दे के पीछे से दक्षिण भारत में इसकी शुरुआत हम देख ही रहे है करुणानिधि से लेकर जयललिता तक सब इसमे शामिल है... बीजेपी के असर वाली इंडिया टूडे के एनडीटीवी के हाथ मे जाने के बाद उसके ख़बरों का कलेवर और तेवर कैसे बदला है ये आप देख सकते है यही हालत अख़बारों की भी है कुल मिला के पूरा का पूरा मीडिया इसकी गिरफ्त में एसा नही है की ये कोइ आज की बात नही है बरसों से एसा हो रहा है लेकिन इस तरह से हम मीडिया में ऑब्जेक्टिवटी होने का बात कैसे कह सकते हैं? हम ये भ्रम कैसे पाल सकते है की मीडिया जो दिखा रहा है वो बेबाक और इमानदार है? हम ये कैसे सोच सकते है की मीडिया की आवाज़ पूरे भारत की आवाज़ है न की सिर्फ किसी एक खास तबके ,पार्टी या पैसे देने वाले ग्रुप की?... ये ठीक है की कई बार मीडीया ने काफी अच्छा काम किया है और कई एसे लोगों को मीडीया के चलते ही न्याय मिल सका जिन्हे इसकी उम्मीद नही थी... लेकिन पहले से ही टीआरपी के वायरस से ग्रस्त मीडिया की ये स्थिती वाकई चिंता का विषय है...और इस पर गंभीरता से सोचा जाना चाहिये ............................................

 
 
 

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